Thursday, November 24, 2011

आत्मदर्शन

मनुष्य केवल मात्र अखिलेश्वर परमपिता परमात्मा के स्वरुप की प्रति है जीवात्मा कर्मानुसार समस्त योनियों को भोगता हुआ  मानव  देह को  प्राप्त  करता है  यद्यपि  जीवन  के  क्रम  में मानव जीवन जीने का अवसर एक  बार  ही  मिलता  है  लेकिन  मनुष्य  जीवन  पाकर  अगर  मानव  सदाचार  से  जीवन यापन  करते  हुए  निस्वार्थ  भाव  से  जीवकल्याण  को  समर्पित  रहता  है  तो  वह  निश्चय  ही  अगले  जनम में मनुष्य योनि को प्राप्त होता है  क्योकि  उसकी  कर्मगति  उर्ध्व  अर्थात  ऊपर की ओर जाती है और  उर्ध्व  गति  की  ओर  जाने  वाली  उर्जारुपी  आत्मा कर्मानुसार सर्वोपरि महलोक , स्व लोक  भुव लोक और भू लोक को प्राप्त होती है
महलोक   जहाँ परमेश्वर का स्वयं निज निवास है 
स्वलोक   अर्थात स्वर्गलोक जहाँ देवताओं का निवास है 
भुवलोक  जहाँ  अनन्य भक्तगणों  का निवास है
भूलोक    जहाँ  समस्त पितरों का निवास है  इन लोकों में केवल उन्ही जीवात्माओं अगले जनम की प्राप्ति होती है जो अपने पिछले जनम में विकारों से मुक्त होकर परमेश्वर की अनन्य भक्ति करते हुए परमार्थ और जीवकल्याण के लिए जीते हैं 
जो जीवात्माएं  विकारों अर्थात काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ में फंसे  रहते है तथा स्वार्थी बनकर ईश्वर को नकार कर जीवन यापन करते है ऐसी जीवात्माएं  अधोगति अर्थात नीच योनि को प्राप्त होती है और सदा इस मृत्युलोक में ही पशु, पक्षी और कीट-पतंगों का जीवन जीने को मजबूर रहती है 
इसलिए मनुष्य को विकारों अर्थात काम,क्रोध,मद,मोह और लोभ जो  पैदा करती है और अधोगति कर्म करने को बाध्य करती है से स्वयं नकाराक्त्मक उर्जा को मुक्त करके अपनी कर्मगति को उर्ध्व की ओर प्रेरित करना चाहिए अर्थात क्षमा , दया , तप ,त्याग और भक्ति भाव जो सकारात्मक उर्जा पैदा करते हैं जिससे जीवात्मा को परमात्मा की दिव्यज्योति का दर्शन होते है और परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार कराती है अपने जीवन को और अपना तन,मन और धन निःस्वार्थ भक्ति भाव से जीवकल्याण सेवा के लिए समर्पित कर देना चाहिए  क्योंकि मानव  परमात्मा स्वरुप की एकमात्र प्रतिरूप है और परमात्मा का लक्ष्य सदैव जीवकल्याण होता है ....आओ हम पहले स्वयं को जाने , पहचाने हम क्या वाकई परमात्मा के प्रतिरूप है  कैसे?
सर्वप्रथम अपनी आँखों को बंद करके , शरीर और मन को मुक्त अवस्था में लाकर ध्यानमुद्रा में बैठकर चिंतन करे फिर मनन करे और अंत में मंथन करे.
१  क्या आप आँख है?     उत्तर   .... नहीं 
२  क्या आप नाक है?      उत्तर   .... नहीं 
३  क्या आप हाथ है?      उत्तर   .... नहीं 
४  क्या आप कान है?      उत्तर   .... नहीं 
५  क्या आप मुहं  है?      उत्तर   .... नहीं 
६  क्या आप सिर है?       उत्तर   .... नहीं 
७  क्या आप पैर है?        उत्तर   .... नहीं 
८  क्या आप शरीर के अन्दर का ह्रदय है?                    उत्तर   .... नहीं 
९ क्या आप शरीर के अन्दर का रक्त है?                      उत्तर   .... नहीं 
१० क्या आप शरीर के अन्दर का उदर अर्थात पेट है?       उत्तर   .... नहीं 
११  क्या आप मस्तिष्क है? उत्तर   .... नहीं 
१२ क्या आप यह शरीर है?  उत्तर   .... नहीं 
१३  क्या आप शब्द है?      उत्तर   .... नहीं 
१४  क्या आप घर है?        उत्तर   .... नहीं 
जब आप शरीर का कोई अंग नहीं है तो आप शरीर भी नहीं हो सकते
जब आप इनमें से कोई नहीं है तो आप है कौन?
जब आप इनमें से हो नहीं सकते तो आप न तो नर है , न नारी है 
तो फिर आप हिन्दू , मुस्लिम, सिख , इसाई  भी  नहीं  हो सकते 
यह शरीर तो घर की तरह है और ह्रदय में स्थित मन जीवात्मा का निवास है ठीक उसी तरह जैसे रोज मनुष्य रोजी रोटी कमाने घर से बाहर जाते हैं और शाम को वापस अपने निवास स्थान पर आ जाते है 
जीवात्मा भी सोने के दौरान शरीर से निकलकर विचरण करती है और जैसे ही आँख खुलती है अर्थात भाव आते है जीवात्मा फिर से शरीर में प्रवेश कर लेती है 
अब जानने का विषय यह है कि समस्त जीवों के अंदर विद्यमान आत्मा   कौन है ? जीवात्मा का परमात्मा से कैसे सम्बन्ध हुआ?  इस सूक्षम ज्ञान को जानने के लिए प्राणी को अर्थात मनुष्य को चिंतन करना होगा  जैसे एक पिता का अपने बच्चों में केवलमात्र एक शुक्राणु से सम्बन्ध बना जबकि सहवास के दौरान हजारों शुक्राणु का प्रवाह होता है  मनुष्य के शरीर में विद्यमान शुक्राणुओं की तुलना में एक शुक्राणु का सम्बन्ध अनुपात बहुत सूक्षम है  और यह सम्बन्ध ठीक और सटीक उसी तरह बैठता है जैसे उर्जारुपी शक्ति जीवात्मा जो अति सूक्षम अंश अनुपात है परमब्रह्म परमात्मा ओउमकार की अखिल अनंत असीम शक्ति के सामने. इस तरह मनुष्य की जीवात्मा का सम्बन्ध सीधे सीधे परमात्मा से हुआ. तो मनुष्य परमात्मा के स्वरूप की प्रति ही तो हुआ... हर मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि मानव जनम परमात्मा का आशीर्वाद है जिस तरह हर माता-पिता को अपनी औलाद से उम्मीद करते है कि उनके बच्चे अच्छे पढ़े लिखे और नेक इन्सान बने और उत्कृष्ट कार्य करके संसार में माता-पिता का नाम रोशन करे.  यही उम्मीद अखिलेश्वर परमपिता परमात्मा भी सभी जीवात्माओं से करता है कि मनुष्य स्वयं को सभी विकारों से मुक्त करके अपने जीवन में असीम भक्ति भाव पैदा करके जीवन को जीव कल्याण के लिए समर्पित कर दे. ऐसा करने से जीवात्मा को परमात्मा की असीम शक्तियां मिलने लगेगी ताकि परमात्मा शक्तियों के माध्यम से जीवात्मा से सीधे सम्बन्ध स्थापित कर चमत्कार करके संसार में अपने होने का अहसास दिलाता है और दिखाता है ..जो जीवात्मा परमात्मा की कसौटी पर खरी उतरती है परमात्मा उस जीवात्मा को अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करता है और उसी जीवात्मा के द्वारा चमत्कार करता है तथा उस जीवात्मा को अपनी तरह देवतुल्य बनाकर सदैव के लिए पूजनीय बना देता है और उसे मोक्ष प्रदान कर अपने धाम भुवलोक  में दूत से अलंकृत कर आश्रय देता है तथा अपना संदेशवाहक दूत बनाकर अपने ईश्वरीय धर्म जीव कल्याण के प्रसार और अनुपालन के लिए महात्मा बुद्ध,महावीर जैन, सत्य सांई, गुरु नानक , मोहम्मद और लार्ड ईसा के रूप में मृत्युलोक में भेजता रहता है ..परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए मनुष्य को पानी की तरह पारदर्शी , सोने की तरह खरा बनने के लिए जप तप ,ध्यान और  योग विद्या का विधिवत अनुसरण करना होगा जिसके लिए उसे  आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाना चाहिए न कि धार्मिक गुरु की शरण में. आध्यात्मिक गुरु गुणों की खान होता है जैसे 
धृति,क्षमा ,दमोस्तेयं, शोचिमिन्द्रिय निग्रह 
धी विद्या सत्यम  अक्रोधो  दशकं धर्मं लक्षणं 
सरलार्थ :- धैर्य रखना, क्षमा करना, संयम रखना,चोरी न करना, शरीर और मन को साफ रखना , इन्द्रियों को वश में रखना, बिना सोचे-समझे कोई काम न करना अर्थात बुद्धि से काम लेना, विद्या ग्रहण करना, सच बोलना और क्रोध न करना ये दस धर्म के मूल लक्षण हैं  इन लक्षणों से जो गुणवान होता है वही दिव्य गुणों को प्राप्त करने का श्रेष्ठ अधिकारी होता है तथा समस्त जीवों के भावों को जान सकता है और भक्ति भाव से पैदा करके परमात्मा के दर्शन कराने का एकमात्र माध्यम है ..इसलिए तो अध्यात्मिक गुरु को भगवान से भी बड़ा माना गया है  और कहा गया है :-
गुरु  गोविन्द  दोउ  खड़े ,  काके  लागू  पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय ...
गुरु ब्रह्मा , गुरु विष्णु , गुरु  देवो  महेश्वर
गुरु साक्षात् परमब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः   ...
इस श्लोक में गुरु को ब्रह्मा,विष्णु और महेश जिन्हें संसार का भगवान माना जाता है से भी श्रेष्ठ अर्थात परमब्रह्म से अलंकृत किया गया है ..अब सभी मनुष्यों को यह जान लेना चाहिए कि हमें यह मनुष्य जीवन  परमेश्वर के विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए मिला है और पूरा करने के लिए सदैव तत्पर रहे .इसलिए मनुष्य अन्य जीवों से उत्कृष्ट और अलग है..

Sunday, November 20, 2011

आध्यात्मिक जीवन का रहस्य



आत्मा का अध्ययन ही अध्यात्म है और आत्मा अर्थात आत्म + आ यानि कि मैं यानि ईश्वर हर जीव में हूँ   हर जीव पांच तत्वों से अर्थात पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु  और आकाश से निर्मित है

यदि मनुष्य ध्यान दे कि हमारे हाथों में पांच ही उंगलियाँ अर्थात अंगूठा समेत क्यों होती है ? इससे तो यही प्रमाणित होता है कि पृथ्वी का हर जीव इन्हीं पञ्च तत्वों से बना है और मृत्यु उपरांत इन्हीं पञ्च तत्वों में ही विलीन हो जाता है जैसे
१ आत्मा आकाश में मिल जाती है 
२ खून पानी में अर्थात दाहसंस्कार में खून भाप बनकर पानी में मिल जाता है
३ काया जो मिट्टी से बनी है जलने के बाद फिर से मिट्टी में मिल जाती है
४ सांस वायु में विलीन हो जाती है
५ शरीर का तेज़, बनावट अग्नि में जलने के बाद ख़त्म हो जाता है

परमात्मा ने सभी जीवों को अपने  आत्मंश  से  पञ्च तत्वों  के सहयोग से चार श्रेणी में अंडज, पिंडज, उश्म्ज और स्थावर में पैदा किया है
यदि समानता की बात करें तो यह प्रत्यक्ष है कि पृथ्वी पर कहीं भी रहनेवाला मनुष्य बनावट एवं कार्यविधि में एक जैसा है सभी जीवों के खून का रंग तो लाल ही होता है, सभी कि उत्पत्ति का स्थान भी एक ही है सभी जीवों के उत्पत्ति और उत्सर्जन अंग का कार्य एक जैसा है समान है उसका रंग केवल स्थान, जलवायु के कारण अलग हो सकता है भाषा-बोली और पहनावे के कारण अलग-अलग दिखाई देता है
इसलिए परमात्मा ने सभी पंचतत्वों को सभी के लिए असीमित और मुक्त अवस्था में रखा है ताकि सभी जीव समान रूप से इनका उपयोग और उपभोग कर सके जैसे सूरज की धूप और हवा किसी को इसलिए नहीं लगती कि वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई या हिन्दुस्तानी , अरबी या अमेरिकन है , इन पंचतत्वों का कोई देश, जात, धर्म ईमान नहीं है

निस्वार्थ  प्रेम की कोई भाषा, जात, देश, धर्म नहीं होता , निश्छल प्रेम परमात्मा का प्रसाद है जो सभी जीवों को पंचतत्वों के रूप में सबको समान रूप से मिला है   इसे केवल अंतर्मन से समदर्शी और सद्भावना से महसूस  किया जा सकता है   केवल मनुष्य ने ही पृथ्वी को देश में बाँट कर सीमाबद्ध करके अपने अध्यात्मिक ज्ञान को सीमित कर लिया है
पक्षियों को जिन्हें परमात्मा ने ही रचा है हमारी तरह उनके लिए सारी पृथ्वी और गगन सबके लिए है और देखो वे स्वछंद होकर विचरते हैं जबकि मनुष्य पांच विकारों में अर्थात काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ में फंसकर अध्यात्मज्ञान से दूर होकर लाख चौरासी भोगने के लिए मृत्युलोक में फंसा रहता है  

ईश्वर ने अपने समरूप मनुष्य को गढ़ा  है और पांच कर्मेन्द्रियाँ अर्थात मुहं, हाथ, पैर, जनन अंग , उत्सर्जन अंग और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ अर्थात आँख, नाक, कान, मस्तिष्क और त्वचा    इन इन्द्रियों के सदुपयोग और दुरूपयोग से मनुष्य अपने अगले जनम की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है
मनुष्यों के पैरों की पाँचों उंगलियाँ इन्ही पांच विकारों की ओर अर्थात नीचे की ओर ले जाती है जबकि हाथों की पाँचों उंगलियाँ जीवात्मा को उर्ध्व दिशा अर्थात ऊपर की ओर ले जाती है   विकारों में फंसे रहने से मनुष्य परमत्मा के दर्शन नहीं कर सकता है
यधपि शब्द शक्ति अर्थात ओउम जोकि परमात्मा शिव के द्वारा संचारित है   शिव अर्थात यही   शव जिसमे पंचतत्व प्रवाहित कर आत्मा अर्थात परमात्मंश  को कर्म करने के लिए जन्म लेना पड़ता है यदि शब्द को सभी तत्वों से अलग कर दिया जाये तो संसार में कुछ भी नहीं होगा केवल ओउम के
ओउम का मतलब अ + उ + म
अ का मतलब अखिल अलख
उ का मतलब उत्तम
म का मतलब महत्तत्व
महातत्व से अहंकार अर्थात मैं का भाव  प्रकट हुआ फिर मैं तीन भागों में विभक्त हुआ
रज तत्व(लाल रंग रज तत्व का परिचायक है प्रमाण के तौर पर जब अहंकार क्रोध बनकर उभरता है तो मनुष्य की आँखे लाल हो जाती है )
सत तत्व ( सफ़ेद  रंग  सत्य  का परिचायक है आत्मारुपी ज्योतिपुंज को सफ़ेद रंग में ही दिखाया जाता है सत्यवादी महापुरुष का अहम् शांतिप्रिय , कल्याणकारी, निष्पाप पारदर्शी होता है ),
तम तत्व( काला रंग विप्लव, विनाश  का परिचायक है इसलिए शिव भगवान का क्रोध विनाशकारी माना गया है आज भी जब मनुष्य तामसिक  अहंकार की गिरफ्त में आता है तो विनाश करता है या तो खुद को मिटा देता है या दुसरे का खात्मा कर देता है )
इसलिए सदाशिव शंकर को ओउमकार अर्थात ओउम का रचियता माना गया है   भगवान शिव अलख सर्वव्यापी सर्वोत्तम शक्ति है  ब्रह्माण्ड की सारी उर्जा शक्ति का स्त्रोत्र भगवान शिव में समाया है

Tuesday, November 15, 2011

ऊर्जा विज्ञान और अध्यात्मिक ज्ञान


ऊर्जा विज्ञान और अध्यात्मिक ज्ञान 

        पृथ्वी के सभी स्थलीय , जलीय , उष्मीय और वायु जीवों का निर्माण या उत्पत्ति पंच महातत्व पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से हुआ है इसका प्रमाण हाथों में पांच उँगलियों का होना है जो हम जीवों को पांच महा विकारों काम, क्रोध, मद , मोह और लोभ पर विजय पाकर पांच दिव्य शक्ति  क्षमा, दया, तप, त्याग और निश्छल प्रेम को अपनाने को प्रेरित करती है 
        आत्मा आकाशीय तत्व है मृत्यु उपरांत आकाश में विलीन हो जाती है , सांस वायु में , खून वाष्प बनकर पानी में , शरीर मिटटी बनकर पृथ्वी में और शरीर का तेज अग्नि में विलीन हो जाता है , इस तरह शरीर के पाँचों तत्व पांच महातत्व में मिलकर प्रमाणित करते है कि जीवों की उत्त्पत्ति पांच महातत्व से ही हुई है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए 
        अब सवाल केवल आत्मा और परमात्मा का है , आत्मा क्या है ? , कैसे बनी? और शरीर में कहाँ निवास करती है? इन प्रश्नों ने अध्यात्मिक ज्ञानी और विज्ञानी दोनों को चुनौती दे रखी है   विज्ञान के आधुनिक नवीन मशीनों और प्रयोगों ने मानव शरीर के एक एक अंग को खंगाल दिया , लेकिन आजतक भी जान नहीं सके कि जीवात्मा शरीर के किस अंग में विद्यमान है 
परमात्मा :- आओ इस सत्य को जानने की कोशिश करे  सबसे पहले हम मंथन करे कि इस सृष्टि को चलाने वाली कोई तो दिव्यशक्ति है , ब्रह्माण्ड में इतने विशाल ग्रह , उपग्रह चक्कर लगा रहे है विज्ञान के मायने में यह सब सूर्य की गुरुत्व आकर्षण शक्ति के कारण हो रहा है , अब सवाल यह है कि सूर्य को भी तो किसी ने बनाया ही होगा , सूर्य में गुरुत्व आकर्षण शक्ति का एकमात्र कारण भी तो ऊर्जा ही है , जब सूर्य में इतनी ऊर्जा है तो उस परमशक्ति में कितनी ऊर्जा होगी , उसकी शक्ति का अनुमान लगाना भी मुश्किल है  इसलिए मान लिया जाये कि यह ब्रह्माण्ड परमात्मशक्ति से ही विद्यमान है और परमात्मा ने अपनी शक्ति को ब्रह्माण्ड के सभी चर , अचर जीवों में विभाजित कर रखा है हम उस परमात्मशक्ति को साकार और निराकार रूप में पूजते है , ऐसा मानते है और आस्थागत है 
आत्मा :- आत्मा परमात्मा की ऊर्जा की सबसे छोटी इकाई है जिसका माप और नाप संभव नहीं ,  विज्ञान ने साबित किया है कि ऊर्जा का मात्रक शक्ति है , पृथ्वी से पैदा सभी जीव-पदार्थ ऊर्जा के स्रोत है अर्थात शक्ति के साधन है , आधुनिक विज्ञान ने बिजली का अविष्कार किया है , बिजली आज हमारे सुख-साधन और दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है , बिजली के बिना सभी आधुनिक यंत्र बेकार है क्योंकि विद्युत् ऊर्जा ही उनका प्राण है , बल्ब, मोटर, पंखे, कंप्यूटर ,एयर कंडीशन , टी वी, मोबाइल यहाँ तक कि रॉकेट यान और सैटलाइट सभी यंत्र विद्युत् ऊर्जा से चलते है लेकिन विद्युत् ऊर्जा के प्रवाह को कभी देखा नहीं जा सकता यद्यपि ऊर्जा की चमक को देखा गया चाहे वह विद्युत् ऊर्जा हो या आकाशीय ऊर्जा 
      जिस तरह बल्ब के जलने का प्रभाव दिखता है लेकिन बिजली के तारो में ऊर्जा के प्रवाह को देखा नहीं जा सकता केवल महसूस किया जा सकता है उसी तरह शरीर में विद्यमान ऊर्जा जो परमात्मशक्ति की इकाई है सूर्य से विछिन्न होकर पृथ्वी के माध्यम से भोज्य पदार्थो के रूप में सभी जीव ग्रहण करते रहते है जो शुक्राणु के रूप में शरीर में एकत्रित होती है जिसे पञ्च महातत्व नियंत्रित करते है 
आत्मा का निवास :- ऊर्जा ही आत्मा है , ताकत है , जीवन है , जब तक शरीर में आत्मा है तब तक शरीर में नियत तापमान रहता है लेकिन मरने  पर देखा गया है कि आत्मा के निकलते ही शरीर निर्जीव और ठंडा होकर अकड़ जाता है   ऊर्जा का मतलब उर + जाँ  अर्थात उर का अर्थ ह्रदय और जाँ का अर्थ जान    मतलब बिलकुल साफ है ह्रदय में जो जान है वह ऊर्जा रुपी परमात्मा का अंश है 
विज्ञान और अध्यात्म :- विज्ञान और अध्यात्म सिक्के के दो पहलू है मानव निर्मित सभी आधुनिक यंत्र ऊर्जा के प्रवाह से ही चलते है जैसे फ्रिज और एयर कंडीशन कम्प्रेस्सर से चलते है कम्प्रेस्सर फ्रिज और एयर कंडीशन का ह्रदय है अगर कम्प्रेस्सर काम करना बंद कर दे तो दोनों यंत्र बेकार है उसी तरह सभी जीवो में ह्रदय ही कम्प्रेस्सर की तरह काम करते है  और ह्रदय और कोम्प्रेस्सर दोनों ही ऊर्जा से चलते है 
कितना सटीक है कुदरत और कुदरत निर्मित मानव का आधुनिक सिद्धांत अब कोई शक की गुंजाईश नहीं होनी चाहिए   आत्मा परमात्मा का अंश है और ह्रदय में निवास करती है और मानव ही परमपिता परमात्मा की सर्वश्रेष्ट कृति है  इसलिए मानव को नियंत्रक बनना चाहिए क्योंकि नियंता तो स्वयं ईश्वर है 
नियंत्रक बनने का तात्पर्य यह नहीं कि मानव निरीह ,असहाय और दुर्बल जीवों पर अपनी ताकत , अहंकार और धन से अनैतिक अधिकार जताए बल्कि उसे स्वयं के विकारों अर्थात काम ,क्रोध, मद, मोह और लोभ पर नियंत्रण पाकर परमार्थ जीवन का निर्वाह करते हुए ईश्वर के दूत बनकर परमात्मा के उद्देश्य को पूरा करे ताकि उसे परमात्मा सानिद्ध्य प्राप्त हो 

Sunday, November 6, 2011

समाधी के स्वर


१  सालोक्य :- इसमें ऐसे आनंद की अनुभूति होती है जिसमे यह अनुभव किया जाता है कि ' मैं हूँ और परमपुरुष है '  यह ज्ञान तब होता है जब कुलकुण्डलिनी मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान चक्र के बीच होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर झींगुर की आवाज सुनाई देती  है 

सामीप्य :- इस स्थिति में ' परमपुरुष ' के पास होने का अनुभव होता है और आनंद का बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी स्वाधिष्ठान चक्र  से मणिपुर चक्र के बीच होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर घंटी  की आवाज सुनाई देती  है 

सायुज्य :- इस स्थिति में ' परमपुरुष ' के बिलकुल निकट होने अर्थात उनके चरण या अंग से स्पर्श होने का बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी मणिपुर चक्र  से अनाहत चक्र के बीच होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर बांसुरी की आवाज सुनाई देती  है 


सारुप्य :- इस स्थिति में ' सिर्फ मैं हूँ और परमपुरुष है दूसरा कोई नहीं ' ऐसा होने का बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी अनाहत चक्र से विशुद्धचक्र के मध्य होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर चर्च की घंटी की आवाज सुनाई देती  है


सृष्टि :- मैं ही परमपुरुष हूँ ' इसी बोध को सृष्टि कहते है , ऐसा बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी  विशुद्धचक्र से आज्ञाचक्र के मध्य होती है  इस अवस्था में ओंकार अर्थात ओउम की आवाज सुनाई देती है


कैवल्य :- ' सिर्फ परमपुरुष  है ' मन की इस स्थिति को कैवल्य कहते है यही निर्विकल्प की समाधी है , इस अवस्था में कोई आवाज नहीं सुनाई देती , ऐसा बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी आज्ञाचक्र से सहस्रचक्र के मध्य होती है  इस अंतिम अवस्था में " मैं " का भाव समाप्त हो जाता है और ब्रहम्त्व का बोध ही सविकल्प समाधी है 

Friday, December 17, 2010

अध्यात्म चिकित्सा

आत्मा अरुज है वह कभी रोग से आक्रांत नहीं होती  इसका उपयोग रोग निवारण के लिए किया जा सकता है  अध्यात्म चिकित्सा का मूल आधार है आत्मा के अरुज स्वाभाव का चिंतन करना और तेजस केंद्र पर इसको ध्यान से केन्द्रित करना


१ मन की चेतना द्वारा इन्द्रियों को नियंत्रित किया जाता है 
२ भाव चेतना द्वारा मन और इन्द्रियों का संचालन करना 


यह भाव बोध हो कि शरीर बाहरी जगत से दूर है और आत्मा अधिक निकट है  अध्यात्म चिकित्सा का मूल भाव ही भाव चिकित्सा है   भाव शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकार के होते है  


अशुद्ध भाव विकृति पैदा करते है और मन को चंचल बनाते है तथा शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को कम करता है 
शुद्ध भाव दिमाग की कार्यप्रणाली को ताकत देते है और मन को एकाग्रता प्रदान करते है तथा प्रतिरोधक शक्ति को ज्यादा ताकतवर बनाते है 


भाव चिकित्सा में बाधा डालने वाले तत्व :- क्रोध, अहंकार , कपट, लोभ, वासना, जलन, निंदा और चुगली करना 
भाव चिकित्सा के साधक तत्व :- क्षमा, विनम्रता, पवित्रता, संतोष, अभय, करुणा, अहिंसा, सदभावना, दया, ताप, त्याग, मैत्री, निस्वार्थ प्रेमभाव और परगुण दर्शन

स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है निरोगी काया निरोगी मन , इस कथन को सार्थक करता है यह श्लोक : 'शरीर माध्यम धर्मं खलु साधनम' अर्थात शरीर को स्वस्थ रखना धर्म का पहला साधन है क्योंकि कोई भी कार्य बिना जप, तप ,योग और भोग के द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता और कार्य सिद्धि चाहे जप, तप के द्वारा किया जाये या योग और भोग के द्वारा की जाये हर परिस्थिति में मन एकाग्र होना चाहिए और मन एकाग्र तभी होगा जब मन स्वस्थ होगा , मन स्वस्थ तभी होगा जब शरीर स्वस्थ होगा  
अब हम जान गए कि शरीर का स्वस्थ होना कितना जरूरी है? स्वस्थ मन में ही चेतना जागृत होती है यही निर्मल भाव मनुष्य को अध्यात्म ज्ञान का बोध कराते है और अध्यात्म शिखर तक ले जाने का  एकमात्र साधन है 
अध्यात्म चिकित्सा के मूल तत्व 

१  श्वास और प्राण उर्जा का सम्यक प्रयोग 
२  एकाग्रता 
३  शरीरप्रेक्षा 
४  अनुप्रेक्षा 
५ ध्वनि के प्रकम्पन 
६  कायोत्सर्ग 
७  उपवास 
८   रंग चिकित्सा 
९  भाव विशुद्धि 


श्वास का सम्यक प्रयोग :- श्वास की गति बदलने पर भाव बदल जाता है और आवेश का भाव जागृत होता है तब श्वास की गति तेज हो जाती है जबकि शांति का भाव जागृत होने पर श्वास की गति धीमी हो जाती है  श्वास के प्रति जागने वाला व्यक्ति अन्तरंग में उभरने वाले आवेश भाव को बदल सकता है और समाप्त कर सकता है 

श्वास, भाव और मन की गति के नियम :- 
१  ध्यान में श्वास धीमा हो जाता है और श्वास को मंद करे तो ध्यान बन जाता है 
२ श्वास एक प्राणशक्ति है  प्राणशक्ति चेतना से जुडी है इसलिए श्वास को देखने का अर्थ है श्वास के साथ जुडी प्राणधारा की आधारभूत चेतना का अनुभव करना 
३  श्वास को देखने से 'मैं कौन हूँ' यह उलझा हुआ प्रश्न सुलझ जाता है  इसके लम्बे अभ्यास से प्राण और चेतना का स्पष्ट अनुभव हो जाता है 
४  वास्तव में दीर्ध श्वास ही सहज श्वास है  पेट का फूलना और सिकुड़ना ही सहज श्वास है 


प्राण उर्जा का सम्यक प्रयोग :- प्राण सूक्ष्म शरीर के बीच का सम्बन्ध सूत्र है   प्राण शरीर में पाँच प्रकार से नियत समय पर प्राण धारा का प्रवाह करते है 


प्राण           प्राण केंद्र      प्राण - सम्बन्ध     प्राण की स्थिति 
प्राण       नासाग्र,ह्रदय          सूर्य      सुबह ३ से ५ ..फेफड़े में 
                                                          दोप: ११ से १  ..हृदय में 
                                                          सायं ७  से ९ ..हृदय झिल्ली 
अपान    गुदा                     अग्नि     सुबह ५ से ७ ..बड़ी आँत
                                                          दोप: १ से ५  ..छोटी आँत 
                                                          रात ११ से १  ..मूत्राशय में 
                                                          रात  १ से ३ ...यकृत में  
समान    नाभि                   जल        सुबह ५ से ११ ..पेट,तिल्ली,
                                                                                   अग्नाशय 
                                                          सायं ५ से ७ ..गुर्दा में 
                                                          रात ८ से ११ ..उत्सर्जन तंत्र 
उदान    कंठ,ओठ               वायु        सुबह ३ से ५ ..फेफड़े में 
                                                          दोप:११ से १ ..ह्रदय में 
व्यान     त्वचा                चंद्रमा         रात ९ से ११ ..श्वसन तंत्र में 
                                                           पाचन और उत्सर्जन तंत्र में


प्राण    का सम्बन्ध   सूर्य से है , नेत्र में प्राण की अधिक मात्रा से है 
अपान का सम्बन्ध  अग्नि से है,वाणी में अपान अधिक मात्रा से है
समान का सम्बन्ध   जल से है   ,मन में समान अधिक मात्रा से है
उदान  का सम्बन्ध   वायु से है   ,ओज में उदान अधिक मात्रा से है
व्यान  का सम्बन्ध   चंद्रमा से है,कान में व्यान अधिक मात्रा से है 


प्राण के प्रवाह :- प्राण के मुख्य तीन प्रवाह है 


   १      ईडा     :- ईडा का सम्बन्ध ज्ञान की धाराओं और मानसिक क्रियाकलाप से है  ईडा शक्ति का आंतरिक रूप है 
 २   पिंगला :- पिंगला का सम्बन्ध शारीरिक क्रियाओं से है  पिंगला शक्ति का बाहरी रूप है 
   ३   सुषुम्ना  :- सुषुम्ना का सम्बन्ध शारीरिक क्रिया से तो है पर यह अध्यात्म शक्ति का बाहरी रूप है 


प्राणप्रेक्षा :- प्राण शक्ति को प्रबल करने के लिए प्राण प्रेक्षा बहुत जरूरी है

प्राण         घटक        रंग            समय 
प्राण        ह्रदय         गुलाबी     ३ मिनट
अपान     गुदा          पीला        ५ मिनट 
समान    नाभि         लाल        ५ मिनट 
उदान     कंठ           नीला        ५ मिनट 
व्यान    पूरा शरीर   श्वेत          ५ मिनट 


एकाग्रता :- दीर्ध श्वास मन की एकाग्रता के लिए आवश्यक है श्वास दुगुना या चौगुना करने पर दिमाग को आराम मिलता है  इस अभ्यास से दिमागी तरंगों को महसूस किया जाता है इससे शरीर के अंग और प्रणालियाँ भी प्रभावित होती है 


३  शरीर प्रेक्षा :- शरीर प्रेक्षा में हम शरीर को मन की आँखों से देखते है  मन को शरीर के प्रत्येक भाग पर ले जाते है उस भाग में होने वाली क्रिया का सजीव अनुभव करते है  यह खुली आँखों से नहीं केवल बंद आँखों से चित्त द्वारा होता है  शरीर के प्रत्येक भाग में एक मिनट तक मन को केन्द्रित किया जाता है और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पन का अनुभव किया जाता है 
पेट की भीतरी प्रेक्षा अर्थात मन संचरण पहले दोनों गुर्दे , बड़ी आँत, छोटी आँत , अग्नाशय (पेनक्रियाज), पक्वाशय (diyodinam ), अमाशय(stomac), तिल्ली(spleen ),यकृत(lever ), तनुपट (डायफ्राम) इस तरह सभी भागों में होने वाली क्रियाओं का मन से अनुभव करते हुए शरीर के पूरे भाग की यात्रा करे 


चैतन्य प्रेक्षा :- शरीर के सोये हुए भागो में चेतना जागृत करने के लिए चैतन्य प्रेक्षा सहायक प्रक्रिया है 


शक्तिकेंद्र :- मन को शक्ति केंद्र पीठ के मेरुरज्जु के नीचे केन्द्रित करो  वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान करो 


तेजस केंद्र :- मन को नाभि पर केन्द्रित करो  आगे से पीछे सुषुम्ना तक मन के प्रकाश को सीधा फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


आनंद्केंद्र :- मन को आनंद्केंद्र अर्थात ह्रदय के पास केन्द्रित करो   आगे से पीछे सुषुम्ना तक मन के प्रकाश को सीधा फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो साथ ही यहाँ पर श्वास संयम का प्रयोग करो 


विशुद्धि केंद्र :- मन को गले के मध्य भाग पर केन्द्रित करो  आगे से पीछे सुषुम्ना तक मन के प्रकाश को सीधा फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


ब्रह्म केंद्र :- मन को जीभ के अग्र भाग पर केन्द्रित करो जीभ अधर में ही रहे ,आगे से पीछे सुषुम्ना तक मन के प्रकाश को सीधा फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


प्राण केंद्र :- मन को प्राण केंद्र अर्थात नाक के अग्र भाग पर केन्द्रित करो  आगे से पीछे सुषुम्ना तक मन के प्रकाश को सीधा फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


दर्शन केंद्र :- मन को दोनों आँखों और भृकुटियों के बीच केन्द्रित करो  आगे से पीछे  मस्तिष्क के पीछे की दीवार  तक मन के प्रकाश को  फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


ज्योति केंद्र :- मन को ललाट अर्थात माथे के मध्य भाग पर केन्द्रित करो  आगे से पीछे मस्तिष्क के पीछे की दीवार तक मन के प्रकाश को फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


शांति केंद्र :- मन को सिर के अग्र भाग पर केन्द्रित करो जैसे दीये  के प्रकाश की तरह आगे से पीछे मस्तिष्क के पीछे की दीवार तक मन के प्रकाश को फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


ज्ञान केंद्र :- मन को सिर के ऊपरी दिमाग अर्थात छोटी पर केन्द्रित करो  मन को सिर के अग्र भाग पर केन्द्रित करो जैसे दीये  के प्रकाश की तरह आगे से पीछे मस्तिष्क के पीछे की दीवार तक मन के प्रकाश को फैलाये और वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनो का ध्यान से अनुभव करो 


४  अनुप्रेक्षा :- अनुप्रेक्षा आदतों को बदलने की एक खास प्रयोग विधि है , यह केवल आत्मचिंतन द्वारा संभव है  पवित्र भावना के द्वारा शरीर में अमृत तुल्य रसायन पैदा करते है जो काल्पनिक प्रतिबिम्बों द्वारा शारीरिक क्रियाओं को नियंत्रित करते है 


५  संकल्पशक्ति :- संकल्पशक्ति का प्रयोग अनुप्रेक्षा का एक अंग है इसके द्वारा अनेक कार्यों की सिद्धि की जा सकती है , तेजस केंद्र पर ध्यान कर जो संकल्प किया जाता है वह शीघ्र सफल होता है 


६  ध्वनि प्रकम्पन :- ध्वनि प्रकम्पन भावनाओं के साथ मिलकर विकार को बाहर निकल देते है और प्रतिरोधक क्षमता को और प्रबल बनाते है 


७  कायोत्सर्ग :- कायोत्सर्ग शरीर के शिथलीकरण और ममत्व के विसर्जन का प्रयोग है  शिथलीकरण से शरीर प्रभावित होता है और शरीर मन की आज्ञा का पालन करता है  तनावमुक्त करता है इसमें आँखे बंद और श्वास मंद करे , मेरुदंड और गर्दन को सीधा रखे ,अकड़न बिलकुल न हो , मांसपेशियों को ढीला छोडो , शरीर के प्रत्येक भाग में रुई की तरह हल्कापन महसूस करो प्रत्येक भाग को शिथिल करे और मन को पैर से सिर तक पूरे भाग में पूरी एकाग्रता से चित्त की यात्रा करो 


संकलित 

Saturday, November 20, 2010

गोत्र उपनाम की वंश परंपरा

गोत्र उपनाम की वंश परंपरा 


        आदिकाल से जब से सृष्टि की शुरुआत हुई वेद अनुसार ब्रह्मा जी ने देविक सृष्टि के अंतर्गत अपनी योगविद्या से सबसे पहले तीन पुत्रों सनत, सनंदन और सनातन जो फल की इच्छा न रखने वाले थे को पैदा किया , सृष्टि को आगे बढ़ाने में जब इनकी कोई रूचि नहीं हुई तो ब्रह्मा जी ने फिर अपनी योगविद्या से बारह अन्य पुत्रों रूचि, धर्म ,भृगु , भार्गव, मरीचि, अंगिरस, पुलसत्य, पुलह, ऋतू , अत्रि, वशिष्ट और विभावसु को पैदा किया ये सभी ब्रह्मा के समान सर्वज्ञ ,उधर्वगामी, दिव्य और ब्रह्मवादी है और प्रजापति कहलाये  तथा स्वयं  के दो भाग करके एक भाग से स्वयंभू मनु और दुसरे भाग से अयोनिजा शतरूपा को जन्म दिया और परस्पर संयोग से तीन पुत्रो प्रियवत, उत्तानपाद और विरत तथा दो पुत्रियाँ अकुति और प्रसूति को जन्म दिया तत्पश्चात 
१ अकुति का विवाह रूचि प्रजापति के साथ किया जिनसे दो पुत्र पैदा हुए 
 प्रसूति  का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ जिनसे चौबीस पुत्रियाँ श्रद्धा , लक्ष्मी, धृति, कीर्ति, पुष्टि, तुष्टि, मेघा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, सिद्धि, ख्याति, अरणी, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, उर्जा, स्वः, सती, स्वधा नाम की पैदा हुई 
धर्म प्रजापति के साथ तेरह कन्याओं श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, कीर्ति, पुष्टि, तुष्टि, मेघा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, सिद्धि,  का विवाह हुआ 
परम बुद्धिमान भृगु प्रजापति के साथ ख्याति का विवाह हुआ 
5 भार्गव प्रजापति के साथ अरणी का विवाह हुआ 
६ मरीचि प्रजापति के साथ सम्भूति  का विवाह हुआ 
अंगिरस प्रजापति के साथ स्मृति का विवाह हुआ 
पुल्सत्य प्रजापति के साथ प्रीति  का विवाह हुआ  
पुलह प्रजापति के साथ क्षमा  का विवाह हुआ 
१० ऋतू प्रजापति के साथ सन्नति का विवाह हुआ 
११ अत्रि प्रजापति के साथ अनुसूया का विवाह हुआ 
१२ वशिष्ट प्रजापति के साथ उर्जा का विवाह हुआ 
१३ विभावसु (अग्नि) प्रजापति के साथ स्वाहा  का विवाह हुआ 
१४ सती को भगवन रूद्र (शिवजी) को समर्पित किया जो संसार की लोकमाता बनी सभी स्त्रियाँ सती की वंशज है और समस्त पुल्लिंग रूद्र का वंशज है क्योंकि जब सृष्टि की अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही थी तो ब्रह्मा जी ने भगवन शिव जी की आराधना की और सृष्टि को बढ़ाने का उपाय पूछा तो भगवन शिवजी ने उन्हें अपना अर्ध्नारिशिवर रूप दिखाया तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने स्वयं को दो भागों में बाँट कर मनु और शतरूपा के रूप में सृष्टि को आगे बढाया 
१५ पित्रिश्वरों को स्वधा नाम की कन्या बयाही गयी 
तब से इन्ही ऋषियों के नाम पर गोत्र व् उपनाम की वंशपरम्परा का चलन चलता आ रहा था यद्यपि पहले उपनाम अर्थात गोत्र का उल्लेख वंश के गौरवशाली होने का परिचायक था और अपने पूर्वजों के द्वारा किये गए महँ कार्यों का गौरव अनुभव तो करता ही था बल्कि वंशपरम्परा के उत्तराधिकारी  को महान कार्य करने को प्रेरित करता और उसे अपने गौरवशाली वंशपरम्परा को आगे तक ले जाने का उत्तरदायित्व भी सौंपता था 
लेकिन जब से ईस्वी का आगमन हुआ अर्थात आदिकाल  से भक्तिकाल तक  इस गोत्र परंपरा का चलन चला परन्तु रीतिकाल से आधुनिक काल इस चलन का लोप होने लगा और लोग स्वेच्छा से नया उपनाम जोड़ने लगे 
शुक्ल यजुर्वेद के याजको ने  शुक्ल , शुक्ला  उपनाम जोड़ा 
कृष्ण यजुर्वेद के याजको ने मिश्रित सूक्तों को कंठस्थ कर मिश्र, मिश्रा उपनाम जोड़ा 
जिन्हें दो वेदों का ज्ञान था उन्होंने  द्विवेदी उपनाम जोड़ लिया 
जिन्हें तीन वेदों का ज्ञान था उन्होंने त्रिवेदी उपनाम जोड़ लिया 
जिन्हें चार वेदों का ज्ञान था उन्होंने चतुर्वेदी उपनाम जोड़ लिया 
जिन्हें वाजपेय यज्ञ का ज्ञान था उन्होंने वाजपेयी उपनाम जोड़ लिया
भगवन विष्णु के उपासको ने  वैष्णव उपनाम जोड़ लिया 
भगवन शिव के उपासको ने  शैव उपनाम जोड़ लिया 
माँ शक्ति के उपासको ने  शाक्य उपनाम जोड़ लिया 
भगवन कृष्ण यदुवंशी थे तो लोगो ने यादव उपनाम जोड़ लिया 
भगवन राम रघुवंशी थे तो लोगो ने  रघुवंशी  उपनाम जोड़ लिया


वर्तमान में उपनाम अब व्यक्ति विशेष का जातिसूचक पहचान बन गया है  आज व्यक्ति को अपने उपनाम के इतिहास की कोई विशेष जानकारी नहीं होती और न ही वे जानने की इच्छा रखते है , उन्हें केवल अपने उपनाम पर अहंकार जताना आता है और इसी उपनाम ने आज मानवता के बीच एक ऐसी खाई बना दी है जो कभी नहीं भरी जा सकती 
अब तो उपनाम भी वंशपरम्परा का परिचायक नहीं है क्योंकि अब नए उपनाम जोड़ने का चलन चल पड़ा है जैसे 

ऋषि बाल्मीकि के मानने वालो ने  बाल्मीकि उपनाम जोड़ लिया 
भगवन बुद्ध के मानने वालो ने  बौध और गौतम उपनाम जोड़ लिया

पूजा पाठ कराने वालों ने पंडित उपनाम जोड़ लिया 
मौर्यकाल के लोगों ने  मौर्य उपनाम जोड़ लिया
गुप्तकाल  के लोगों ने गुप्त और गुप्ता उपनाम जोड़ लिया

Core Sense of the words

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