आत्मा का अध्ययन ही अध्यात्म है और आत्मा अर्थात आत्म + आ यानि कि मैं यानि ईश्वर हर जीव में हूँ हर जीव पांच तत्वों से अर्थात पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से निर्मित है
यदि मनुष्य ध्यान दे कि हमारे हाथों में पांच ही उंगलियाँ अर्थात अंगूठा समेत क्यों होती है ? इससे तो यही प्रमाणित होता है कि पृथ्वी का हर जीव इन्हीं पञ्च तत्वों से बना है और मृत्यु उपरांत इन्हीं पञ्च तत्वों में ही विलीन हो जाता है जैसे
१ आत्मा आकाश में मिल जाती है
२ खून पानी में अर्थात दाहसंस्कार में खून भाप बनकर पानी में मिल जाता है
३ काया जो मिट्टी से बनी है जलने के बाद फिर से मिट्टी में मिल जाती है
४ सांस वायु में विलीन हो जाती है
५ शरीर का तेज़, बनावट अग्नि में जलने के बाद ख़त्म हो जाता है
परमात्मा ने सभी जीवों को अपने आत्मंश से पञ्च तत्वों के सहयोग से चार श्रेणी में अंडज, पिंडज, उश्म्ज और स्थावर में पैदा किया है
यदि समानता की बात करें तो यह प्रत्यक्ष है कि पृथ्वी पर कहीं भी रहनेवाला मनुष्य बनावट एवं कार्यविधि में एक जैसा है सभी जीवों के खून का रंग तो लाल ही होता है, सभी कि उत्पत्ति का स्थान भी एक ही है सभी जीवों के उत्पत्ति और उत्सर्जन अंग का कार्य एक जैसा है समान है उसका रंग केवल स्थान, जलवायु के कारण अलग हो सकता है भाषा-बोली और पहनावे के कारण अलग-अलग दिखाई देता है
इसलिए परमात्मा ने सभी पंचतत्वों को सभी के लिए असीमित और मुक्त अवस्था में रखा है ताकि सभी जीव समान रूप से इनका उपयोग और उपभोग कर सके जैसे सूरज की धूप और हवा किसी को इसलिए नहीं लगती कि वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई या हिन्दुस्तानी , अरबी या अमेरिकन है , इन पंचतत्वों का कोई देश, जात, धर्म ईमान नहीं है
निस्वार्थ प्रेम की कोई भाषा, जात, देश, धर्म नहीं होता , निश्छल प्रेम परमात्मा का प्रसाद है जो सभी जीवों को पंचतत्वों के रूप में सबको समान रूप से मिला है इसे केवल अंतर्मन से समदर्शी और सद्भावना से महसूस किया जा सकता है केवल मनुष्य ने ही पृथ्वी को देश में बाँट कर सीमाबद्ध करके अपने अध्यात्मिक ज्ञान को सीमित कर लिया है
पक्षियों को जिन्हें परमात्मा ने ही रचा है हमारी तरह उनके लिए सारी पृथ्वी और गगन सबके लिए है और देखो वे स्वछंद होकर विचरते हैं जबकि मनुष्य पांच विकारों में अर्थात काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ में फंसकर अध्यात्मज्ञान से दूर होकर लाख चौरासी भोगने के लिए मृत्युलोक में फंसा रहता है
ईश्वर ने अपने समरूप मनुष्य को गढ़ा है और पांच कर्मेन्द्रियाँ अर्थात मुहं, हाथ, पैर, जनन अंग , उत्सर्जन अंग और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ अर्थात आँख, नाक, कान, मस्तिष्क और त्वचा इन इन्द्रियों के सदुपयोग और दुरूपयोग से मनुष्य अपने अगले जनम की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है
मनुष्यों के पैरों की पाँचों उंगलियाँ इन्ही पांच विकारों की ओर अर्थात नीचे की ओर ले जाती है जबकि हाथों की पाँचों उंगलियाँ जीवात्मा को उर्ध्व दिशा अर्थात ऊपर की ओर ले जाती है विकारों में फंसे रहने से मनुष्य परमत्मा के दर्शन नहीं कर सकता है
यधपि शब्द शक्ति अर्थात ओउम जोकि परमात्मा शिव के द्वारा संचारित है शिव अर्थात यही शव जिसमे पंचतत्व प्रवाहित कर आत्मा अर्थात परमात्मंश को कर्म करने के लिए जन्म लेना पड़ता है यदि शब्द को सभी तत्वों से अलग कर दिया जाये तो संसार में कुछ भी नहीं होगा केवल ओउम के
ओउम का मतलब अ + उ + म
अ का मतलब अखिल अलख
उ का मतलब उत्तम
म का मतलब महत्तत्व
महातत्व से अहंकार अर्थात मैं का भाव प्रकट हुआ फिर मैं तीन भागों में विभक्त हुआ
रज तत्व(लाल रंग रज तत्व का परिचायक है प्रमाण के तौर पर जब अहंकार क्रोध बनकर उभरता है तो मनुष्य की आँखे लाल हो जाती है )
सत तत्व ( सफ़ेद रंग सत्य का परिचायक है आत्मारुपी ज्योतिपुंज को सफ़ेद रंग में ही दिखाया जाता है सत्यवादी महापुरुष का अहम् शांतिप्रिय , कल्याणकारी, निष्पाप पारदर्शी होता है ),
तम तत्व( काला रंग विप्लव, विनाश का परिचायक है इसलिए शिव भगवान का क्रोध विनाशकारी माना गया है आज भी जब मनुष्य तामसिक अहंकार की गिरफ्त में आता है तो विनाश करता है या तो खुद को मिटा देता है या दुसरे का खात्मा कर देता है )
इसलिए सदाशिव शंकर को ओउमकार अर्थात ओउम का रचियता माना गया है भगवान शिव अलख सर्वव्यापी सर्वोत्तम शक्ति है ब्रह्माण्ड की सारी उर्जा शक्ति का स्त्रोत्र भगवान शिव में समाया है
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