गोत्र उपनाम की वंश परंपरा
आदिकाल से जब से सृष्टि की शुरुआत हुई वेद अनुसार ब्रह्मा जी ने देविक सृष्टि के अंतर्गत अपनी योगविद्या से सबसे पहले तीन पुत्रों सनत, सनंदन और सनातन जो फल की इच्छा न रखने वाले थे को पैदा किया , सृष्टि को आगे बढ़ाने में जब इनकी कोई रूचि नहीं हुई तो ब्रह्मा जी ने फिर अपनी योगविद्या से बारह अन्य पुत्रों रूचि, धर्म ,भृगु , भार्गव, मरीचि, अंगिरस, पुलसत्य, पुलह, ऋतू , अत्रि, वशिष्ट और विभावसु को पैदा किया ये सभी ब्रह्मा के समान सर्वज्ञ ,उधर्वगामी, दिव्य और ब्रह्मवादी है और प्रजापति कहलाये तथा स्वयं के दो भाग करके एक भाग से स्वयंभू मनु और दुसरे भाग से अयोनिजा शतरूपा को जन्म दिया और परस्पर संयोग से तीन पुत्रो प्रियवत, उत्तानपाद और विरत तथा दो पुत्रियाँ अकुति और प्रसूति को जन्म दिया तत्पश्चात
१ अकुति का विवाह रूचि प्रजापति के साथ किया जिनसे दो पुत्र पैदा हुए
२ प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ जिनसे चौबीस पुत्रियाँ श्रद्धा , लक्ष्मी, धृति, कीर्ति, पुष्टि, तुष्टि, मेघा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, सिद्धि, ख्याति, अरणी, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, उर्जा, स्वः, सती, स्वधा नाम की पैदा हुई
३धर्म प्रजापति के साथ तेरह कन्याओं श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, कीर्ति, पुष्टि, तुष्टि, मेघा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, सिद्धि, का विवाह हुआ
४ परम बुद्धिमान भृगु प्रजापति के साथ ख्याति का विवाह हुआ
5 भार्गव प्रजापति के साथ अरणी का विवाह हुआ
६ मरीचि प्रजापति के साथ सम्भूति का विवाह हुआ
७ अंगिरस प्रजापति के साथ स्मृति का विवाह हुआ
८ पुल्सत्य प्रजापति के साथ प्रीति का विवाह हुआ
९ पुलह प्रजापति के साथ क्षमा का विवाह हुआ
१० ऋतू प्रजापति के साथ सन्नति का विवाह हुआ
११ अत्रि प्रजापति के साथ अनुसूया का विवाह हुआ
१२ वशिष्ट प्रजापति के साथ उर्जा का विवाह हुआ
१३ विभावसु (अग्नि) प्रजापति के साथ स्वाहा का विवाह हुआ
१४ सती को भगवन रूद्र (शिवजी) को समर्पित किया जो संसार की लोकमाता बनी सभी स्त्रियाँ सती की वंशज है और समस्त पुल्लिंग रूद्र का वंशज है क्योंकि जब सृष्टि की अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही थी तो ब्रह्मा जी ने भगवन शिव जी की आराधना की और सृष्टि को बढ़ाने का उपाय पूछा तो भगवन शिवजी ने उन्हें अपना अर्ध्नारिशिवर रूप दिखाया तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने स्वयं को दो भागों में बाँट कर मनु और शतरूपा के रूप में सृष्टि को आगे बढाया
१५ पित्रिश्वरों को स्वधा नाम की कन्या बयाही गयी
तब से इन्ही ऋषियों के नाम पर गोत्र व् उपनाम की वंशपरम्परा का चलन चलता आ रहा था यद्यपि पहले उपनाम अर्थात गोत्र का उल्लेख वंश के गौरवशाली होने का परिचायक था और अपने पूर्वजों के द्वारा किये गए महँ कार्यों का गौरव अनुभव तो करता ही था बल्कि वंशपरम्परा के उत्तराधिकारी को महान कार्य करने को प्रेरित करता और उसे अपने गौरवशाली वंशपरम्परा को आगे तक ले जाने का उत्तरदायित्व भी सौंपता था
लेकिन जब से ईस्वी का आगमन हुआ अर्थात आदिकाल से भक्तिकाल तक इस गोत्र परंपरा का चलन चला परन्तु रीतिकाल से आधुनिक काल इस चलन का लोप होने लगा और लोग स्वेच्छा से नया उपनाम जोड़ने लगे
शुक्ल यजुर्वेद के याजको ने शुक्ल , शुक्ला उपनाम जोड़ा
कृष्ण यजुर्वेद के याजको ने मिश्रित सूक्तों को कंठस्थ कर मिश्र, मिश्रा उपनाम जोड़ा
जिन्हें दो वेदों का ज्ञान था उन्होंने द्विवेदी उपनाम जोड़ लिया
जिन्हें तीन वेदों का ज्ञान था उन्होंने त्रिवेदी उपनाम जोड़ लिया
जिन्हें चार वेदों का ज्ञान था उन्होंने चतुर्वेदी उपनाम जोड़ लिया
जिन्हें वाजपेय यज्ञ का ज्ञान था उन्होंने वाजपेयी उपनाम जोड़ लिया
भगवन विष्णु के उपासको ने वैष्णव उपनाम जोड़ लिया
भगवन शिव के उपासको ने शैव उपनाम जोड़ लिया
माँ शक्ति के उपासको ने शाक्य उपनाम जोड़ लिया
भगवन कृष्ण यदुवंशी थे तो लोगो ने यादव उपनाम जोड़ लिया
भगवन राम रघुवंशी थे तो लोगो ने रघुवंशी उपनाम जोड़ लिया
वर्तमान में उपनाम अब व्यक्ति विशेष का जातिसूचक पहचान बन गया है आज व्यक्ति को अपने उपनाम के इतिहास की कोई विशेष जानकारी नहीं होती और न ही वे जानने की इच्छा रखते है , उन्हें केवल अपने उपनाम पर अहंकार जताना आता है और इसी उपनाम ने आज मानवता के बीच एक ऐसी खाई बना दी है जो कभी नहीं भरी जा सकती
अब तो उपनाम भी वंशपरम्परा का परिचायक नहीं है क्योंकि अब नए उपनाम जोड़ने का चलन चल पड़ा है जैसे
ऋषि बाल्मीकि के मानने वालो ने बाल्मीकि उपनाम जोड़ लिया
भगवन बुद्ध के मानने वालो ने बौध और गौतम उपनाम जोड़ लिया
पूजा पाठ कराने वालों ने पंडित उपनाम जोड़ लिया
मौर्यकाल के लोगों ने मौर्य उपनाम जोड़ लिया
गुप्तकाल के लोगों ने गुप्त और गुप्ता उपनाम जोड़ लिया
तब से इन्ही ऋषियों के नाम पर गोत्र व् उपनाम की वंशपरम्परा का चलन चलता आ रहा था यद्यपि पहले उपनाम अर्थात गोत्र का उल्लेख वंश के गौरवशाली होने का परिचायक था और अपने पूर्वजों के द्वारा किये गए महँ कार्यों का गौरव अनुभव तो करता ही था बल्कि वंशपरम्परा के उत्तराधिकारी को महान कार्य करने को प्रेरित करता और उसे अपने गौरवशाली वंशपरम्परा को आगे तक ले जाने का उत्तरदायित्व भी सौंपता था
लेकिन जब से ईस्वी का आगमन हुआ अर्थात आदिकाल से भक्तिकाल तक इस गोत्र परंपरा का चलन चला परन्तु रीतिकाल से आधुनिक काल इस चलन का लोप होने लगा और लोग स्वेच्छा से नया उपनाम जोड़ने लगे
शुक्ल यजुर्वेद के याजको ने शुक्ल , शुक्ला उपनाम जोड़ा
कृष्ण यजुर्वेद के याजको ने मिश्रित सूक्तों को कंठस्थ कर मिश्र, मिश्रा उपनाम जोड़ा
जिन्हें दो वेदों का ज्ञान था उन्होंने द्विवेदी उपनाम जोड़ लिया
जिन्हें तीन वेदों का ज्ञान था उन्होंने त्रिवेदी उपनाम जोड़ लिया
जिन्हें चार वेदों का ज्ञान था उन्होंने चतुर्वेदी उपनाम जोड़ लिया
जिन्हें वाजपेय यज्ञ का ज्ञान था उन्होंने वाजपेयी उपनाम जोड़ लिया
भगवन विष्णु के उपासको ने वैष्णव उपनाम जोड़ लिया
भगवन शिव के उपासको ने शैव उपनाम जोड़ लिया
माँ शक्ति के उपासको ने शाक्य उपनाम जोड़ लिया
भगवन कृष्ण यदुवंशी थे तो लोगो ने यादव उपनाम जोड़ लिया
भगवन राम रघुवंशी थे तो लोगो ने रघुवंशी उपनाम जोड़ लिया
वर्तमान में उपनाम अब व्यक्ति विशेष का जातिसूचक पहचान बन गया है आज व्यक्ति को अपने उपनाम के इतिहास की कोई विशेष जानकारी नहीं होती और न ही वे जानने की इच्छा रखते है , उन्हें केवल अपने उपनाम पर अहंकार जताना आता है और इसी उपनाम ने आज मानवता के बीच एक ऐसी खाई बना दी है जो कभी नहीं भरी जा सकती
अब तो उपनाम भी वंशपरम्परा का परिचायक नहीं है क्योंकि अब नए उपनाम जोड़ने का चलन चल पड़ा है जैसे
ऋषि बाल्मीकि के मानने वालो ने बाल्मीकि उपनाम जोड़ लिया
भगवन बुद्ध के मानने वालो ने बौध और गौतम उपनाम जोड़ लिया
पूजा पाठ कराने वालों ने पंडित उपनाम जोड़ लिया
मौर्यकाल के लोगों ने मौर्य उपनाम जोड़ लिया
गुप्तकाल के लोगों ने गुप्त और गुप्ता उपनाम जोड़ लिया
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