Thursday, November 24, 2011

आत्मदर्शन

मनुष्य केवल मात्र अखिलेश्वर परमपिता परमात्मा के स्वरुप की प्रति है जीवात्मा कर्मानुसार समस्त योनियों को भोगता हुआ  मानव  देह को  प्राप्त  करता है  यद्यपि  जीवन  के  क्रम  में मानव जीवन जीने का अवसर एक  बार  ही  मिलता  है  लेकिन  मनुष्य  जीवन  पाकर  अगर  मानव  सदाचार  से  जीवन यापन  करते  हुए  निस्वार्थ  भाव  से  जीवकल्याण  को  समर्पित  रहता  है  तो  वह  निश्चय  ही  अगले  जनम में मनुष्य योनि को प्राप्त होता है  क्योकि  उसकी  कर्मगति  उर्ध्व  अर्थात  ऊपर की ओर जाती है और  उर्ध्व  गति  की  ओर  जाने  वाली  उर्जारुपी  आत्मा कर्मानुसार सर्वोपरि महलोक , स्व लोक  भुव लोक और भू लोक को प्राप्त होती है
महलोक   जहाँ परमेश्वर का स्वयं निज निवास है 
स्वलोक   अर्थात स्वर्गलोक जहाँ देवताओं का निवास है 
भुवलोक  जहाँ  अनन्य भक्तगणों  का निवास है
भूलोक    जहाँ  समस्त पितरों का निवास है  इन लोकों में केवल उन्ही जीवात्माओं अगले जनम की प्राप्ति होती है जो अपने पिछले जनम में विकारों से मुक्त होकर परमेश्वर की अनन्य भक्ति करते हुए परमार्थ और जीवकल्याण के लिए जीते हैं 
जो जीवात्माएं  विकारों अर्थात काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ में फंसे  रहते है तथा स्वार्थी बनकर ईश्वर को नकार कर जीवन यापन करते है ऐसी जीवात्माएं  अधोगति अर्थात नीच योनि को प्राप्त होती है और सदा इस मृत्युलोक में ही पशु, पक्षी और कीट-पतंगों का जीवन जीने को मजबूर रहती है 
इसलिए मनुष्य को विकारों अर्थात काम,क्रोध,मद,मोह और लोभ जो  पैदा करती है और अधोगति कर्म करने को बाध्य करती है से स्वयं नकाराक्त्मक उर्जा को मुक्त करके अपनी कर्मगति को उर्ध्व की ओर प्रेरित करना चाहिए अर्थात क्षमा , दया , तप ,त्याग और भक्ति भाव जो सकारात्मक उर्जा पैदा करते हैं जिससे जीवात्मा को परमात्मा की दिव्यज्योति का दर्शन होते है और परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार कराती है अपने जीवन को और अपना तन,मन और धन निःस्वार्थ भक्ति भाव से जीवकल्याण सेवा के लिए समर्पित कर देना चाहिए  क्योंकि मानव  परमात्मा स्वरुप की एकमात्र प्रतिरूप है और परमात्मा का लक्ष्य सदैव जीवकल्याण होता है ....आओ हम पहले स्वयं को जाने , पहचाने हम क्या वाकई परमात्मा के प्रतिरूप है  कैसे?
सर्वप्रथम अपनी आँखों को बंद करके , शरीर और मन को मुक्त अवस्था में लाकर ध्यानमुद्रा में बैठकर चिंतन करे फिर मनन करे और अंत में मंथन करे.
१  क्या आप आँख है?     उत्तर   .... नहीं 
२  क्या आप नाक है?      उत्तर   .... नहीं 
३  क्या आप हाथ है?      उत्तर   .... नहीं 
४  क्या आप कान है?      उत्तर   .... नहीं 
५  क्या आप मुहं  है?      उत्तर   .... नहीं 
६  क्या आप सिर है?       उत्तर   .... नहीं 
७  क्या आप पैर है?        उत्तर   .... नहीं 
८  क्या आप शरीर के अन्दर का ह्रदय है?                    उत्तर   .... नहीं 
९ क्या आप शरीर के अन्दर का रक्त है?                      उत्तर   .... नहीं 
१० क्या आप शरीर के अन्दर का उदर अर्थात पेट है?       उत्तर   .... नहीं 
११  क्या आप मस्तिष्क है? उत्तर   .... नहीं 
१२ क्या आप यह शरीर है?  उत्तर   .... नहीं 
१३  क्या आप शब्द है?      उत्तर   .... नहीं 
१४  क्या आप घर है?        उत्तर   .... नहीं 
जब आप शरीर का कोई अंग नहीं है तो आप शरीर भी नहीं हो सकते
जब आप इनमें से कोई नहीं है तो आप है कौन?
जब आप इनमें से हो नहीं सकते तो आप न तो नर है , न नारी है 
तो फिर आप हिन्दू , मुस्लिम, सिख , इसाई  भी  नहीं  हो सकते 
यह शरीर तो घर की तरह है और ह्रदय में स्थित मन जीवात्मा का निवास है ठीक उसी तरह जैसे रोज मनुष्य रोजी रोटी कमाने घर से बाहर जाते हैं और शाम को वापस अपने निवास स्थान पर आ जाते है 
जीवात्मा भी सोने के दौरान शरीर से निकलकर विचरण करती है और जैसे ही आँख खुलती है अर्थात भाव आते है जीवात्मा फिर से शरीर में प्रवेश कर लेती है 
अब जानने का विषय यह है कि समस्त जीवों के अंदर विद्यमान आत्मा   कौन है ? जीवात्मा का परमात्मा से कैसे सम्बन्ध हुआ?  इस सूक्षम ज्ञान को जानने के लिए प्राणी को अर्थात मनुष्य को चिंतन करना होगा  जैसे एक पिता का अपने बच्चों में केवलमात्र एक शुक्राणु से सम्बन्ध बना जबकि सहवास के दौरान हजारों शुक्राणु का प्रवाह होता है  मनुष्य के शरीर में विद्यमान शुक्राणुओं की तुलना में एक शुक्राणु का सम्बन्ध अनुपात बहुत सूक्षम है  और यह सम्बन्ध ठीक और सटीक उसी तरह बैठता है जैसे उर्जारुपी शक्ति जीवात्मा जो अति सूक्षम अंश अनुपात है परमब्रह्म परमात्मा ओउमकार की अखिल अनंत असीम शक्ति के सामने. इस तरह मनुष्य की जीवात्मा का सम्बन्ध सीधे सीधे परमात्मा से हुआ. तो मनुष्य परमात्मा के स्वरूप की प्रति ही तो हुआ... हर मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि मानव जनम परमात्मा का आशीर्वाद है जिस तरह हर माता-पिता को अपनी औलाद से उम्मीद करते है कि उनके बच्चे अच्छे पढ़े लिखे और नेक इन्सान बने और उत्कृष्ट कार्य करके संसार में माता-पिता का नाम रोशन करे.  यही उम्मीद अखिलेश्वर परमपिता परमात्मा भी सभी जीवात्माओं से करता है कि मनुष्य स्वयं को सभी विकारों से मुक्त करके अपने जीवन में असीम भक्ति भाव पैदा करके जीवन को जीव कल्याण के लिए समर्पित कर दे. ऐसा करने से जीवात्मा को परमात्मा की असीम शक्तियां मिलने लगेगी ताकि परमात्मा शक्तियों के माध्यम से जीवात्मा से सीधे सम्बन्ध स्थापित कर चमत्कार करके संसार में अपने होने का अहसास दिलाता है और दिखाता है ..जो जीवात्मा परमात्मा की कसौटी पर खरी उतरती है परमात्मा उस जीवात्मा को अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करता है और उसी जीवात्मा के द्वारा चमत्कार करता है तथा उस जीवात्मा को अपनी तरह देवतुल्य बनाकर सदैव के लिए पूजनीय बना देता है और उसे मोक्ष प्रदान कर अपने धाम भुवलोक  में दूत से अलंकृत कर आश्रय देता है तथा अपना संदेशवाहक दूत बनाकर अपने ईश्वरीय धर्म जीव कल्याण के प्रसार और अनुपालन के लिए महात्मा बुद्ध,महावीर जैन, सत्य सांई, गुरु नानक , मोहम्मद और लार्ड ईसा के रूप में मृत्युलोक में भेजता रहता है ..परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए मनुष्य को पानी की तरह पारदर्शी , सोने की तरह खरा बनने के लिए जप तप ,ध्यान और  योग विद्या का विधिवत अनुसरण करना होगा जिसके लिए उसे  आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाना चाहिए न कि धार्मिक गुरु की शरण में. आध्यात्मिक गुरु गुणों की खान होता है जैसे 
धृति,क्षमा ,दमोस्तेयं, शोचिमिन्द्रिय निग्रह 
धी विद्या सत्यम  अक्रोधो  दशकं धर्मं लक्षणं 
सरलार्थ :- धैर्य रखना, क्षमा करना, संयम रखना,चोरी न करना, शरीर और मन को साफ रखना , इन्द्रियों को वश में रखना, बिना सोचे-समझे कोई काम न करना अर्थात बुद्धि से काम लेना, विद्या ग्रहण करना, सच बोलना और क्रोध न करना ये दस धर्म के मूल लक्षण हैं  इन लक्षणों से जो गुणवान होता है वही दिव्य गुणों को प्राप्त करने का श्रेष्ठ अधिकारी होता है तथा समस्त जीवों के भावों को जान सकता है और भक्ति भाव से पैदा करके परमात्मा के दर्शन कराने का एकमात्र माध्यम है ..इसलिए तो अध्यात्मिक गुरु को भगवान से भी बड़ा माना गया है  और कहा गया है :-
गुरु  गोविन्द  दोउ  खड़े ,  काके  लागू  पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय ...
गुरु ब्रह्मा , गुरु विष्णु , गुरु  देवो  महेश्वर
गुरु साक्षात् परमब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः   ...
इस श्लोक में गुरु को ब्रह्मा,विष्णु और महेश जिन्हें संसार का भगवान माना जाता है से भी श्रेष्ठ अर्थात परमब्रह्म से अलंकृत किया गया है ..अब सभी मनुष्यों को यह जान लेना चाहिए कि हमें यह मनुष्य जीवन  परमेश्वर के विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए मिला है और पूरा करने के लिए सदैव तत्पर रहे .इसलिए मनुष्य अन्य जीवों से उत्कृष्ट और अलग है..

Sunday, November 20, 2011

आध्यात्मिक जीवन का रहस्य



आत्मा का अध्ययन ही अध्यात्म है और आत्मा अर्थात आत्म + आ यानि कि मैं यानि ईश्वर हर जीव में हूँ   हर जीव पांच तत्वों से अर्थात पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु  और आकाश से निर्मित है

यदि मनुष्य ध्यान दे कि हमारे हाथों में पांच ही उंगलियाँ अर्थात अंगूठा समेत क्यों होती है ? इससे तो यही प्रमाणित होता है कि पृथ्वी का हर जीव इन्हीं पञ्च तत्वों से बना है और मृत्यु उपरांत इन्हीं पञ्च तत्वों में ही विलीन हो जाता है जैसे
१ आत्मा आकाश में मिल जाती है 
२ खून पानी में अर्थात दाहसंस्कार में खून भाप बनकर पानी में मिल जाता है
३ काया जो मिट्टी से बनी है जलने के बाद फिर से मिट्टी में मिल जाती है
४ सांस वायु में विलीन हो जाती है
५ शरीर का तेज़, बनावट अग्नि में जलने के बाद ख़त्म हो जाता है

परमात्मा ने सभी जीवों को अपने  आत्मंश  से  पञ्च तत्वों  के सहयोग से चार श्रेणी में अंडज, पिंडज, उश्म्ज और स्थावर में पैदा किया है
यदि समानता की बात करें तो यह प्रत्यक्ष है कि पृथ्वी पर कहीं भी रहनेवाला मनुष्य बनावट एवं कार्यविधि में एक जैसा है सभी जीवों के खून का रंग तो लाल ही होता है, सभी कि उत्पत्ति का स्थान भी एक ही है सभी जीवों के उत्पत्ति और उत्सर्जन अंग का कार्य एक जैसा है समान है उसका रंग केवल स्थान, जलवायु के कारण अलग हो सकता है भाषा-बोली और पहनावे के कारण अलग-अलग दिखाई देता है
इसलिए परमात्मा ने सभी पंचतत्वों को सभी के लिए असीमित और मुक्त अवस्था में रखा है ताकि सभी जीव समान रूप से इनका उपयोग और उपभोग कर सके जैसे सूरज की धूप और हवा किसी को इसलिए नहीं लगती कि वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई या हिन्दुस्तानी , अरबी या अमेरिकन है , इन पंचतत्वों का कोई देश, जात, धर्म ईमान नहीं है

निस्वार्थ  प्रेम की कोई भाषा, जात, देश, धर्म नहीं होता , निश्छल प्रेम परमात्मा का प्रसाद है जो सभी जीवों को पंचतत्वों के रूप में सबको समान रूप से मिला है   इसे केवल अंतर्मन से समदर्शी और सद्भावना से महसूस  किया जा सकता है   केवल मनुष्य ने ही पृथ्वी को देश में बाँट कर सीमाबद्ध करके अपने अध्यात्मिक ज्ञान को सीमित कर लिया है
पक्षियों को जिन्हें परमात्मा ने ही रचा है हमारी तरह उनके लिए सारी पृथ्वी और गगन सबके लिए है और देखो वे स्वछंद होकर विचरते हैं जबकि मनुष्य पांच विकारों में अर्थात काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ में फंसकर अध्यात्मज्ञान से दूर होकर लाख चौरासी भोगने के लिए मृत्युलोक में फंसा रहता है  

ईश्वर ने अपने समरूप मनुष्य को गढ़ा  है और पांच कर्मेन्द्रियाँ अर्थात मुहं, हाथ, पैर, जनन अंग , उत्सर्जन अंग और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ अर्थात आँख, नाक, कान, मस्तिष्क और त्वचा    इन इन्द्रियों के सदुपयोग और दुरूपयोग से मनुष्य अपने अगले जनम की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है
मनुष्यों के पैरों की पाँचों उंगलियाँ इन्ही पांच विकारों की ओर अर्थात नीचे की ओर ले जाती है जबकि हाथों की पाँचों उंगलियाँ जीवात्मा को उर्ध्व दिशा अर्थात ऊपर की ओर ले जाती है   विकारों में फंसे रहने से मनुष्य परमत्मा के दर्शन नहीं कर सकता है
यधपि शब्द शक्ति अर्थात ओउम जोकि परमात्मा शिव के द्वारा संचारित है   शिव अर्थात यही   शव जिसमे पंचतत्व प्रवाहित कर आत्मा अर्थात परमात्मंश  को कर्म करने के लिए जन्म लेना पड़ता है यदि शब्द को सभी तत्वों से अलग कर दिया जाये तो संसार में कुछ भी नहीं होगा केवल ओउम के
ओउम का मतलब अ + उ + म
अ का मतलब अखिल अलख
उ का मतलब उत्तम
म का मतलब महत्तत्व
महातत्व से अहंकार अर्थात मैं का भाव  प्रकट हुआ फिर मैं तीन भागों में विभक्त हुआ
रज तत्व(लाल रंग रज तत्व का परिचायक है प्रमाण के तौर पर जब अहंकार क्रोध बनकर उभरता है तो मनुष्य की आँखे लाल हो जाती है )
सत तत्व ( सफ़ेद  रंग  सत्य  का परिचायक है आत्मारुपी ज्योतिपुंज को सफ़ेद रंग में ही दिखाया जाता है सत्यवादी महापुरुष का अहम् शांतिप्रिय , कल्याणकारी, निष्पाप पारदर्शी होता है ),
तम तत्व( काला रंग विप्लव, विनाश  का परिचायक है इसलिए शिव भगवान का क्रोध विनाशकारी माना गया है आज भी जब मनुष्य तामसिक  अहंकार की गिरफ्त में आता है तो विनाश करता है या तो खुद को मिटा देता है या दुसरे का खात्मा कर देता है )
इसलिए सदाशिव शंकर को ओउमकार अर्थात ओउम का रचियता माना गया है   भगवान शिव अलख सर्वव्यापी सर्वोत्तम शक्ति है  ब्रह्माण्ड की सारी उर्जा शक्ति का स्त्रोत्र भगवान शिव में समाया है

Tuesday, November 15, 2011

ऊर्जा विज्ञान और अध्यात्मिक ज्ञान


ऊर्जा विज्ञान और अध्यात्मिक ज्ञान 

        पृथ्वी के सभी स्थलीय , जलीय , उष्मीय और वायु जीवों का निर्माण या उत्पत्ति पंच महातत्व पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से हुआ है इसका प्रमाण हाथों में पांच उँगलियों का होना है जो हम जीवों को पांच महा विकारों काम, क्रोध, मद , मोह और लोभ पर विजय पाकर पांच दिव्य शक्ति  क्षमा, दया, तप, त्याग और निश्छल प्रेम को अपनाने को प्रेरित करती है 
        आत्मा आकाशीय तत्व है मृत्यु उपरांत आकाश में विलीन हो जाती है , सांस वायु में , खून वाष्प बनकर पानी में , शरीर मिटटी बनकर पृथ्वी में और शरीर का तेज अग्नि में विलीन हो जाता है , इस तरह शरीर के पाँचों तत्व पांच महातत्व में मिलकर प्रमाणित करते है कि जीवों की उत्त्पत्ति पांच महातत्व से ही हुई है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए 
        अब सवाल केवल आत्मा और परमात्मा का है , आत्मा क्या है ? , कैसे बनी? और शरीर में कहाँ निवास करती है? इन प्रश्नों ने अध्यात्मिक ज्ञानी और विज्ञानी दोनों को चुनौती दे रखी है   विज्ञान के आधुनिक नवीन मशीनों और प्रयोगों ने मानव शरीर के एक एक अंग को खंगाल दिया , लेकिन आजतक भी जान नहीं सके कि जीवात्मा शरीर के किस अंग में विद्यमान है 
परमात्मा :- आओ इस सत्य को जानने की कोशिश करे  सबसे पहले हम मंथन करे कि इस सृष्टि को चलाने वाली कोई तो दिव्यशक्ति है , ब्रह्माण्ड में इतने विशाल ग्रह , उपग्रह चक्कर लगा रहे है विज्ञान के मायने में यह सब सूर्य की गुरुत्व आकर्षण शक्ति के कारण हो रहा है , अब सवाल यह है कि सूर्य को भी तो किसी ने बनाया ही होगा , सूर्य में गुरुत्व आकर्षण शक्ति का एकमात्र कारण भी तो ऊर्जा ही है , जब सूर्य में इतनी ऊर्जा है तो उस परमशक्ति में कितनी ऊर्जा होगी , उसकी शक्ति का अनुमान लगाना भी मुश्किल है  इसलिए मान लिया जाये कि यह ब्रह्माण्ड परमात्मशक्ति से ही विद्यमान है और परमात्मा ने अपनी शक्ति को ब्रह्माण्ड के सभी चर , अचर जीवों में विभाजित कर रखा है हम उस परमात्मशक्ति को साकार और निराकार रूप में पूजते है , ऐसा मानते है और आस्थागत है 
आत्मा :- आत्मा परमात्मा की ऊर्जा की सबसे छोटी इकाई है जिसका माप और नाप संभव नहीं ,  विज्ञान ने साबित किया है कि ऊर्जा का मात्रक शक्ति है , पृथ्वी से पैदा सभी जीव-पदार्थ ऊर्जा के स्रोत है अर्थात शक्ति के साधन है , आधुनिक विज्ञान ने बिजली का अविष्कार किया है , बिजली आज हमारे सुख-साधन और दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है , बिजली के बिना सभी आधुनिक यंत्र बेकार है क्योंकि विद्युत् ऊर्जा ही उनका प्राण है , बल्ब, मोटर, पंखे, कंप्यूटर ,एयर कंडीशन , टी वी, मोबाइल यहाँ तक कि रॉकेट यान और सैटलाइट सभी यंत्र विद्युत् ऊर्जा से चलते है लेकिन विद्युत् ऊर्जा के प्रवाह को कभी देखा नहीं जा सकता यद्यपि ऊर्जा की चमक को देखा गया चाहे वह विद्युत् ऊर्जा हो या आकाशीय ऊर्जा 
      जिस तरह बल्ब के जलने का प्रभाव दिखता है लेकिन बिजली के तारो में ऊर्जा के प्रवाह को देखा नहीं जा सकता केवल महसूस किया जा सकता है उसी तरह शरीर में विद्यमान ऊर्जा जो परमात्मशक्ति की इकाई है सूर्य से विछिन्न होकर पृथ्वी के माध्यम से भोज्य पदार्थो के रूप में सभी जीव ग्रहण करते रहते है जो शुक्राणु के रूप में शरीर में एकत्रित होती है जिसे पञ्च महातत्व नियंत्रित करते है 
आत्मा का निवास :- ऊर्जा ही आत्मा है , ताकत है , जीवन है , जब तक शरीर में आत्मा है तब तक शरीर में नियत तापमान रहता है लेकिन मरने  पर देखा गया है कि आत्मा के निकलते ही शरीर निर्जीव और ठंडा होकर अकड़ जाता है   ऊर्जा का मतलब उर + जाँ  अर्थात उर का अर्थ ह्रदय और जाँ का अर्थ जान    मतलब बिलकुल साफ है ह्रदय में जो जान है वह ऊर्जा रुपी परमात्मा का अंश है 
विज्ञान और अध्यात्म :- विज्ञान और अध्यात्म सिक्के के दो पहलू है मानव निर्मित सभी आधुनिक यंत्र ऊर्जा के प्रवाह से ही चलते है जैसे फ्रिज और एयर कंडीशन कम्प्रेस्सर से चलते है कम्प्रेस्सर फ्रिज और एयर कंडीशन का ह्रदय है अगर कम्प्रेस्सर काम करना बंद कर दे तो दोनों यंत्र बेकार है उसी तरह सभी जीवो में ह्रदय ही कम्प्रेस्सर की तरह काम करते है  और ह्रदय और कोम्प्रेस्सर दोनों ही ऊर्जा से चलते है 
कितना सटीक है कुदरत और कुदरत निर्मित मानव का आधुनिक सिद्धांत अब कोई शक की गुंजाईश नहीं होनी चाहिए   आत्मा परमात्मा का अंश है और ह्रदय में निवास करती है और मानव ही परमपिता परमात्मा की सर्वश्रेष्ट कृति है  इसलिए मानव को नियंत्रक बनना चाहिए क्योंकि नियंता तो स्वयं ईश्वर है 
नियंत्रक बनने का तात्पर्य यह नहीं कि मानव निरीह ,असहाय और दुर्बल जीवों पर अपनी ताकत , अहंकार और धन से अनैतिक अधिकार जताए बल्कि उसे स्वयं के विकारों अर्थात काम ,क्रोध, मद, मोह और लोभ पर नियंत्रण पाकर परमार्थ जीवन का निर्वाह करते हुए ईश्वर के दूत बनकर परमात्मा के उद्देश्य को पूरा करे ताकि उसे परमात्मा सानिद्ध्य प्राप्त हो 

Sunday, November 6, 2011

समाधी के स्वर


१  सालोक्य :- इसमें ऐसे आनंद की अनुभूति होती है जिसमे यह अनुभव किया जाता है कि ' मैं हूँ और परमपुरुष है '  यह ज्ञान तब होता है जब कुलकुण्डलिनी मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान चक्र के बीच होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर झींगुर की आवाज सुनाई देती  है 

सामीप्य :- इस स्थिति में ' परमपुरुष ' के पास होने का अनुभव होता है और आनंद का बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी स्वाधिष्ठान चक्र  से मणिपुर चक्र के बीच होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर घंटी  की आवाज सुनाई देती  है 

सायुज्य :- इस स्थिति में ' परमपुरुष ' के बिलकुल निकट होने अर्थात उनके चरण या अंग से स्पर्श होने का बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी मणिपुर चक्र  से अनाहत चक्र के बीच होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर बांसुरी की आवाज सुनाई देती  है 


सारुप्य :- इस स्थिति में ' सिर्फ मैं हूँ और परमपुरुष है दूसरा कोई नहीं ' ऐसा होने का बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी अनाहत चक्र से विशुद्धचक्र के मध्य होती है  इस अवस्था में अनुभव करने पर चर्च की घंटी की आवाज सुनाई देती  है


सृष्टि :- मैं ही परमपुरुष हूँ ' इसी बोध को सृष्टि कहते है , ऐसा बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी  विशुद्धचक्र से आज्ञाचक्र के मध्य होती है  इस अवस्था में ओंकार अर्थात ओउम की आवाज सुनाई देती है


कैवल्य :- ' सिर्फ परमपुरुष  है ' मन की इस स्थिति को कैवल्य कहते है यही निर्विकल्प की समाधी है , इस अवस्था में कोई आवाज नहीं सुनाई देती , ऐसा बोध तब होता है जब कुलकुण्डलिनी आज्ञाचक्र से सहस्रचक्र के मध्य होती है  इस अंतिम अवस्था में " मैं " का भाव समाप्त हो जाता है और ब्रहम्त्व का बोध ही सविकल्प समाधी है